प्राइवेट और सरकारी स्कूल के बच्चों में कुछ अलग होते हैं मनोरोग के कारण

प्राइवेट और सरकारी स्कूल के बच्चों में कुछ अलग होते हैं मनोरोग के कारण

नरजिस हुसैन

हम हमेशा स्वास्थ्य को शरीर और खान-पान से जोड़कर देखते हैं लेकिन, क्या हम सच में उस सेहत को दिमाग से, भावना से और व्यवहार से जोड़ पाते हैं? स्कूल, परिवार और समाज बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है। समाज के यही तीन मजबूत खंभे हैं जो बच्चों को शुरू से ही एक अगर ऐसा माहौल दें जिसमें स्थिरता हो, अच्छे और बुरे की समझ हो तो बच्चे के व्यक्तित्व में भी वैसी ही स्थिरता और नैतिकता झलकेगी।

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इस बात को एक छोटी सी मिसाल से समझना और समझाना आसान होगा कि 13 साल की निशा (बदला नाम) दिल्ली के एक बड़े प्राइवेट स्कूल की आठवीं क्लास में पढ़ रही थी। अब क्योंकि दिल्ली महानगर है तो इसकी अपनी भी कुछ खामियां हैं कि परिवार छोटे और ज्यादातर बिना दादी-दादा या नाना-नानी वाले होते हैं। मां-बाप नौकरीपेशा होने से अक्सर महानगरों के बच्चे स्कूल से घर आने के बाद अकले ही रहने को मजबूर होते हैं। तो निशा भी वैसे ही रह रही थी लेकिन, धीरे-धीरे पढञाई से उसका मन हटता गया और उसके नंबर भी कम आने शुरू हो गए। स्कूल में टीचर को लगा मां-बाप ध्यान नहीं दे पा रहे और मां-बाप को लगा शायद अब ट्यूशन लगाने का वक्त आ गया क्योंकि स्कूल में ठीक से पढ़ाई नहीं हो पा रही। इसी तरह दिन गुजरते गए निशा न तो स्कूल में अपने किसी दोस्त या टीचर को कुछ बताती और न घर पर अपनी मां या पिता को ही। 

निशा दिन-ब-दिन अपने कमरे में ही सिमटती गई और मां-बाप भी सोचते कि पढ़ाई कर रही होगी। बहरहाल, निशा डिप्रेशन और आइसोलेशन की पूरी तरह से शिकार हो चुकी थी और यही वजह थी कि उसका पर्फार्मेंस गिरता गया और जब तक स्कूल और परिवार मिले तब तक निशा दवाईयों के हवाले कर दी गई। यहां सबसे दुखद बात यही रही कि अगर स्कूल, परिवार या समाज जरा चौकन्ना रहते तो निशा की हालत इतनी न बिगड़ती। निशा दरअसल, लगातार अकेले रहने से परेशान हो चुकी थी लेकिन, उसे मां-बाप की मजबूरी भी समझनी होती थी इसलिए वह खुलकर किसी अपने के साथ की मांग भी नही कर पाई। क्योंकि वह जानती थी मांग का मतलब होता दूसरा छोटा स्कूल या एक ही आदमी के दम पर परिवार का खर्च खींचना। लेकिन, थी तो छोटी ही शायद नहीं जानती थी कि इस सबके बीच कोई बीच का रास्ता भी निकाला जा सकता था।

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वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के ही सरकारी स्कूल की क्लास 9वीं में पढ़ने वाली पायल (काल्पनिक नाम) को घर में बड़े-बुजुर्गों का साथ तो मिला लेकिन, स्कूल में पीयर प्रेशर के दबाव में वह बहुत तनाव में रहती थी। वह खुद को पढ़ाई में पीछे मानती थी क्योंकि और बच्चों की तरह उसकी मां उसका ट्यूशन नहीं लगा पा रही थी। पायल की पिता नहीं थे और उसकी मां एक डोमेस्टिक वर्कर है स्कूल से आने के बाद पायन अपनी दादी औऱ दादा के साथ घर पर रहती थी और उनसे खूब बातचीत करती थी। लेकिन, पढ़ाई में अच्छी न होने से उसका आत्म विश्वास टूटता जा रहा था जिसका असर उसके बाकी के कामों में भी दिखाई देना शुरू हो गया था। लेकिन, इस पायल के मामले में उसकी दादी ने सबसे पहले ध्यान दिया और बिना मां के खुद ही उससे बात कर करके उसकी परेशानी जानी और टीचर से मिलकर उसकी मदद की। पायल को इस माहौल ने मदद की और किसी भी तरह के आगे गंभीर मनोरोग होने से बच गई।

तो इन दोनों ही केस स्टडीज से ये बात साफ है कि परिवार जितना मजबूत होगा उतना ही स्थिर बच्चे का व्यवहार और किरदार होगा। यानी बच्चे के लिए परिवार में सर्पोट सिस्टम होना बेहद जरूरी है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर बिंदु प्रसाद ने कहा, “मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से आज न सिर्फ प्राइवेट बल्कि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी जूझ रहे हैं लेकिन, इन दोनों ही आबादी की परेशानियां कुछ अलग हैं। मसलन, जहां सरकारी स्कूल के बच्चों में पढ़ाई से जुड़ी कठिनाइयां खासकर गणित और अंग्रेजी में, मादक पदार्थो का सेवन, आत्मविश्वास की कमी वगैरह बड़े मुद्दे हैं वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल के बच्चों में सोशल मीडिया का बढ़ता दखल, अकेलापन और ड्रग्स बच्चों को तेजी से मनोरोगी बना रहे है।”

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अमेरिका के प्रतिष्ठित बॉस्टन कॉलेज से क्लीनिकल साइकोलॉजी में एमए कर इस क्षेत्र में करीब 50 साल का अनुभव लिए डॉक्टर बिंदु प्रसाद दिल्ली के नामी सरदार पटेल विद्यालय के साथ भी बतौर काउंसिलर लंबे वक्त तक जुड़ी रहीं। उन्होंने बताया कि जहां तक पीयर प्रेशर की बात है तो इसका सामना तो दोनों ही तरह के बच्चों को करना पड़ रहा है लेकिन, आत्मविश्वास में कमी और सामाजिक-व्यवहारिक मुद्दों के चले अक्सर देखा गया है कि मध्यम या निम्न मध्यम वर्गीय बच्चे असामाजिक तत्वों के साथ मिल जाते हैं जो आगे चलकर उनके लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। जहां तक घरेलू हिंसा या पारिवारिक तनाव की बात है तो उन्होंने बताया कि यह हिंसा भी दोनों ही तरह के बच्चों को झेलनी पड़ती है लेकिन फर्क सिर्फ यह होता है कि सरकारी स्कूल के बच्चों के परिवारों में यह अक्सर खुलकर सामने आती है वहीं प्राइवेट स्कूलों के बच्चे इसका सांइलेंट तरीके से सामना करते हैं।

शिक्षा व्यवस्था के बारे में डॉक्टर प्रसाद ने अपना लंबा अनुभव साझा करते हुए कहा कि, “हमारी शिक्षा व्यवस्था समग्र यानी होलिस्टिक होनी चाहिए और उसमें योगा और ध्यान की भी जगह हो तो बेहतर है क्योंकि इससे बच्चे का मन स्थिर रहता है और उसका असर बच्चे के क्लास परर्फामेंस पर पड़ता है। हालांकि, मेरा मानना है कि बच्चों को खेलना चाहिए और जी-भर खेलना चाहिए जिससे उसे आतंरिक खुशी मिले और जब बच्चा अंदर से खुश होगा तो उसे किसी भी तरह की काउंसिलिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।” दरअसल दिल्ली के कुछ सरकारी स्कूलों में पिछले साल से हैपिनेस करिकुलम पाठ्यक्रम में सरकार ने शामिल किया जिसका मकसद बच्चों को पढ़ाई के बीच 45 मिनट के ब्रेक में मेंटल एक्सरसाइज या ध्यान कराया जाता है ताकि बच्चे किसी न किसी तरह खुश रहे।

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लेकिन, क्या मेंटल हेल्थ को एक विषय के तौर पर स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए तो उस सोच से डॉक्टर प्रसाद सहमत नहीं होती उनका कहना है कि स्कूलों में मेंटल हेल्थ के वक्त-वक्त पर सेशन देने चाहिए या उसे लाइफ स्किल ऐजुकेशन से जोड़कर पढ़ाया जाना चाहिए। जैसा कि कई शिक्षाविदो का मानना है कि मेंटल हेल्थ को स्कूलों में पढ़ाने से इसके प्रसार में रोक लग सकती है लेकिन, डॉक्टर प्रसाद का कहना है कि पढ़ाना जरूरी है लेकिन उसे एक विषय के तौर पर नहीं क्योंकि फिर यह भी एक अतिरिक्त विषय होगा जो बच्चों पर गैर-जरूरी बोझ बढ़ाएगा।

उन्होंने बताया कि योगा और ध्यान के अलावा कई सारे रचनात्मक कामों में बच्चों को लगाना चाहिए जैसे पॉटिरी, पेंटिंग, पेपरमैशे वगैरह। इसके अलावा वाद-विवाद, चर्चा और अन्य तरह की शारीरिक वर्जिश बच्चों को करानी चाहिए जिससे मेडिकली उनका रक्त प्रवाह ठीक रहेगा, मन धीर और शांत रहेगा। इसको एक वैकल्पिक थैरेपी को तौर पर भी जाना जा सकता है। डॉक्टर बिंदु प्रसाद का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य का कानून बनाना या इसे पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना ही समस्या का हल नहीं है बल्कि इसके लिए परिवार, स्कूल और समाज को एक ऐसा पॉजिटिव माहौल बनाना होगा जहां बच्चे सही दिशा में फल-फूल सकें। ये किसी एक की जिम्मेदारी नहीं बल्कि हर हितधारक यानी स्टेकहोल्डर को इसमें आगे आना होगा और अपना योगदान देना होगा।

यहां एक बात वह और बहुत अच्छी और बहुत जरूरी बताती हैं कि बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों को भी इसमें ट्रेनिंग लेनी और देनी चाहिए। भारत में काउंसिलिंग के अपने शुरूआती दौर को याद करते हुए डॉक्टर प्रसाद बताती है कि किस तरह 1983 में उन्होंने दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में न सिर्फ बच्चों को बल्कि टीचरों को भी खूब ट्रेनिंग सेशन दिए ताकि उनसे भी बच्चों को मदद मिले। उन्होंने बताया कि मानसिक स्वास्थ्य की जागरुकता के अलावा टीचरों के व्यवहार पर भी काम करना बेहद जरूरी है। टीचर और इस पेश से जुड़े सभी लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में संवेदनशील बनाना जरूरी है। टीचर की जागरुकता और संवेदनशीलता बच्चों में मनोरोग के लक्षण जल्दी पहचानने में कारगर होते हैं।

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लैंसेट साइकियाट्रटी की 2019 की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आत्महत्या की सोच की शुरूआत किशोरावस्था में ही होनी शुरू हो जाती है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की अगर बात की जाए तो दिल्ली जैसे महानगर में बच्चों पर पढ़ाई का तनाव और दबाव ज्यादा देखा गया है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्युरो (एनसीआरबी) की हालिया 2018 की रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि देश में लंबी बीमारी से आत्महत्या करने वालों की तादाद बीते सालों में कम हुई है लेकिन, मानसिक स्वास्थ्य रोगियों की आत्महत्या का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। शारीरिक बीमारी में आज देश में अच्छी से अच्छी मेडिकल सुविधा लोगों को मिल रही है वहीं अगर मानसिक स्वास्थ्य के रोगियों की बात की जाए तो उनके लिए पर्याप्त मात्रा में डॉक्टर भी सरकार उपलब्ध नहीं करा पा रही है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य को वक्त रहते ही बाल्यवस्था या किशोरावस्था में ही थाम लेना चाहिए इससे पहले कि वह हमारे, समाज के या सरकार के काबू से बाहर हो जाए।

 

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